ससुर का घर : बहुओं के लिए शिक्षाप्रद कहानी | Parivarik Kahani

 ससुर का घर : बहुओं के लिए शिक्षाप्रद कहानी | Parivarik Kahani 


रोहन और सीमा की नई नई शादी हुई थी। घर में ससुर यानी के रोहन के पिता सुधिरजी और वे दोनों बस तीन ही लोग थे।इस घर को रोहन के मां बाप ने जीवन भर पाई पाई जुटाकर बड़ी मेहनत और अरमानों से बनाया था वर्ना आज के समय में मुंबई में घर बनाना तो दूर की बात है किराए पर लेना भी बहोत बड़ी अचीवमेंट से कम नहीं है।


ससुर का घर : बहुओं के लिए शिक्षाप्रद कहानी | Parivarik Kahani



ससुर का घर : बहुओं के लिए शिक्षाप्रद कहानी | Parivarik Kahani 


जब रोहन कॉलेज में था तब मां उन्हे और दुनिया को छोड़ कर जा चुकी थी। एक कामवाली बाई सकूं थी जो सुबह से लेकर शाम तक उनके घर का सारा काम करती थी।


नई नई शादी हुई थी इसलिए सकू बाई का दिनभरब घर में रहना सीमा को अपनी प्राइवेसी में बाधा सा लगता था इसलिए अब सकुबाई सुबह खाना बनाना,कपड़े और पोछा करने के बाद चली जाती और वापिस शाम को आकार खाना बनाती।


सकुबाई की दोपहर की गेरहाजरी से कई छोटेमोटे काम दिखाई देने लगे जिनमे से ज्यादातर काम बिना कहे सुधीरजी ये सोचकर कर लिया करते की बहुको मदद हो जायेगी लेकिन बहू सोचती की ससुर को औरतों के काम में दखल देने की आदत है।


1 दिन मौका देख कर सीमा ने रोहन से कहा - क्यों ना हम बाबूजी को वृद्धाश्रम में भेज दे? सिर्फ एक बार पैसा भरना पड़ेगा और उन्हें भी अपने उम्र के लोगों का साथ मिल जाएगा। हमें भी अपनी प्राइवेसी के बारे में ज्यादा सोचना नहीं पड़ेगा। रोहन ने सीमा की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।


कुछ दिन ही बीते थे कि बाबूजी अपने दोस्तों के साथ 1 हफ्ते के लिए टूर पर गए और इत्तेफाक से इसी दौरान सकू बाई भी छुट्टी पर थी। फिर क्या सीमा को जैसा चाहिए था वैसा समय मिलने लगा अब रोहन रेस्टोरेंट में खाना खा लेता और सीमा का काम ऑमलेट, ब्रेड या मैगी से चल जाता।


खाना बनाने की टेंशन नहीं थी लेकिन घर में निकलने वाले सारे काम तो अभी भी करने ही थे। ससुर जी की गैर हाजरी में सीमा को एहसास हुआ कि वह बिना कहे ही जो काम कर लिया करते थे उनसे कितना फर्क पड़ता था। छोटे-मोटे लगने वाले यह काम भी काफी समय और एनर्जी लेने वाले थे।



कुछ दिन बीतने के बाद एक दिन रोहन सीमा को कहता है - चलो आज कहीं बाहर घूम कर आते हैं। सीमा बड़ी खुशी खुशी सजधज कर बाहर घूमने के लिए तैयार हो जाती है। रोहन सीमा को अपने घर से 4 किलोमीटर दूर एक चॉल में लेकर आता है। एक आदमी रोहन के हाथों में एक चाबी देता है। रोहन उस चाबी को लेकर चॉल का एक कमरे का दरवाजा खोलता है।


 कमरा खुलते ही दो रूम वाले उस छोटे से अंधेरे से भरे घर के अंदर रोहन सीमा को लेकर जाता है और कहता है कैसा लगा तुम्हें हमारा नया घर? रोहन कहता है -  हम अगले महीने से इसी मकान को भाड़े से लेकर रहेंगे अलग और अपनी प्राइवेसी का मजा लेंगे! अभी मेरी आमदनी के हिसाब से हम इसी को एफोर्ट कर सकते हैं।


रोहन का यह व्यवहार सीमा के समझ में नहीं आया। वह चौकते हुए कहती है - हमारे पास अपना इतना बड़ा घर तो है, फिर क्यों हम भाड़े से रहेंगे? रोहन उसे टोकते हुए कहता है - सोच समझकर बोला करो, वह घर हमारा नहीं है, वह मां बाबूजी का है। तुम्हारे पास एक महीना है सोचने के लिए कि तुम्हें आगे क्या करना है। दोनों वहां से वापस अपने घर लौट आते हैं।



पूरे रास्ते सीमा के दिमाग में तरह-तरह के विचार चल रहे थे। घर पहुंचते ही उसने रोहन से कहा - माना कि यह घर मां बाबूजी का है लेकिन क्या हमारा इस पर कोई हक नहीं है? रोहन ने कहा बिल्कुल है लेकिन मां बाबूजी के बाद। जब तक वह है तब तक तो नहीं!  अगर तुम्हें हक समझ में आता है तो तुम्हें जिम्मेदारियां भी समझ में आती होंगी? सिर्फ हक के बारे में सोच कर और अपनी जिम्मेदारियां भूल कर स्वार्थी होना क्या भला अच्छा होता है?


सीमा के पास रोहन के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। वह सोचने लगी कि उसने अपने क्षणिक सुख के स्वार्थ के लिए इतने नीचे गिर कर ऐसी घटिया सोच अपने दिमाग में आने दी। उसे मन ही मन पछतावा होने लगा। सीमा रोहन से बोली - मुझे माफ कर दीजिए। मैं सच में स्वार्थी हो गई थी, मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई।

रोहन बोला - तुम्हें पछतावा हुआ, मेरे लिए यही काफी है। मैं तुमसे नाराज नहीं हूं।


बेटे और बहू का यह वार्तालाप सुधीर जी दरवाजे पर खड़े होकर सुन रहे थे। उन्होंने आसमान की तरफ देखा और बोले भाग्यवान तुम धन्य हो जो तुमने ऐसे बेटे को जन्म दिया है! उन्होंने दरवाजा खटखटाया। बहू ने दरवाजा खोला तो उनके हाथों में पकड़ी थैली से गरम गरम समोसो की सुगंध उसको आने लगी। ससुर ने अपनी बहू से कहा - वो कोनेवाले हलवाई के पास से लाया हूं, तुम्हें बहुत पसंद है ना?


सीमा को अपने ससुर के प्रति विचार और ससुर के उसके प्रति प्यार उन दोनों का फर्क समझ में आते ही उसकी आंखों में पश्चाताप के आंसू और चेहरे पर अपने परिवार के प्यार के कारण मुस्कान आ गई।



दोस्तों, इंसानी दिमाग में दिन भर में हजारों विचार आते हैं कुछ अच्छे, कुछ बुरे लेकिन किसी भी विचार को शब्दों में परिवर्तित करने से पहले उनको समझना बहुत जरूरी है। अक्सर विचार और वास्तविकता एक दूसरे से मेल नहीं खाते हैं। हमारे बुजुर्ग जो हमें बोझ लगते हैं, जिनसे हम बात बात में चीड़ जाते हैं और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम स्वार्थी होकर सोचते हैं और हम उनके योगदान को समझ नहीं पाते। वह हमारे जीवन में बहुत अहम किरदार निभाते हैं।


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