खोटा सिक्का : ये कहानी आंखे खोल देगी | Hindi Kahani
संजय और शिवानी सगे भाई बहन थे पर दोनों के स्वभाव में बहुत अंतर था। संजय बड़ा जिद्दी और कामचोर था। वह स्कूल में जी चुराता था। जब तब किसी ना किसी बच्चे को पीट आता था। माता पिता का कहना न मानता था। इसके विपरीत शिवानी सबका कहना मानती, मन लगाकर पढती, मां के साथ काम भी करती, साथ ही सबसे अच्छा व्यवहार करती, बड़ों का आदर सम्मान करती।
संजय का बिगड़ जाने का सबसे बड़ा कारण उसके माता-पिता थे। वह कहते कि बेटा खरा सिक्का होता है और बेटियां खोटा सिक्का होती है। उस परिवार में अनेक वर्षों बाद लड़का हुआ था। दादा दादी दादा माता पिता सभी ने उसे सिर पर चढ़ा रखा था। बात उसके मुंह से निकलने की देर थी कि उसकी जिद पूरी कर दी जाती थी।
संजय की आदत बन गई कि वह अपना हट पूरा करके ही रहता। यदि सीधे-सीधे काम ना बनता तो वह रोने लगता या अपने पैर पटकता। शुरू में तो वह बच्चा है बड़े होने पर अपने आप समझदारी आ जाएगी यह सोचकर उसके माता पिता ने उसकी हरकतों पर ध्यान ही नहीं दिया। पर बड़ा होने पर संजय उनके लिए बहुत बड़ी समस्या बन गया।
पढ़ाई लिखाई में उसका बिल्कुल मन ना लगता, 1 कक्षा में वह 3_3 4_4 वर्ष तक पड़ा रहता। तभी उसे जैसे तैसे उत्तीर्ण किया जाता। वह सारे दिन खेलता, बच्चों से मारपीट करता ,उसके माता-पिता समझा समझा कर थक गए कि वह मन लगाकर पढ़े। उस पर कोई असर ही नहीं होता। उसके सामने पुस्तक खुली रहती और वह इधर-उधर देखता रहता। घर पर पढ़ाने के लिए अलग-अलग तरह के शिक्षक की नियुक्ति भी की गई पर वह भी सब बेकार। बच्चा ही ना पढ़े तो शिक्षक भी क्या कर सकता है?
अब संजय के पिता उसके लिए बड़े ही चिंतित रहते। वह चाहते थे कि थोड़ा बहुत तो पढ़ जाए जिससे बड़ा होकर अपना जीविका का निर्वाह कर सकें। अब वह 16 वर्ष का हो चुका था। उसकी मूछे निकलने लगी थी पर अभी भी वह छट्टी कक्षा में ही था। उससे 2 वर्ष छोटी शिवानी अब दसवीं कक्षा में आ गई थी। शिवानी पढ़ने में होशियार थी। स्कूल से भी उसको कोई ना कोई पुरस्कार मिलता ही था।
माता पिता ने बेटी की सदा उपेक्षा की पर उसके गुण उन्हें आकर्षित करने लगे। वह शिवानी की प्रशंसा करते तो संजय चिड़ उठता और किसी ना किसी बहाने से शिवानी को तंग किया करता उसे मारता । शिवानी इसे भी चुपचाप से सह जाती! कभी भी माता-पिता से भाई की शिकायत नहीं की। वह जानती थी कि अंत में भाई का ही पक्ष लेंगे।
समय के साथ साथ संजय और शिवानी दोनों बच्चे बढ़ते गए। संजय के साथी भी उसके जैसे थे पढ़ाई से जी चुराते थे इधर-उधर उधम मचाने वाले, संजय ने उनके साथ रहकर सिनेमा देखना, पान खाना, सिगरेट पीना, नारेबाजी , हुल्लड़ बाजी यह सब काम भी सीख लिए।
पढ़ने वाले अच्छे बच्चे सदा संजय और उसके साथियों से दूर ही रहना पसंद करते थे क्योंकि किसी से भी झगड़ा मारपीट करना आदि इनके बाएं हाथ का खेल था। एक बार छात्र संघ के चुनाव पर संजय और उसके साथियों ने विद्यालय में खूब हुड़दंग मचाया ,तोड़फोड़ की, मारपीट की , परिणाम यह हुआ कि प्राचार्य जी ने उसे क्रोधित होकर विद्यालय से निकाल दिया।
संजय के पिता ने बहुत प्रयास किया पर उसे विद्यालय में फिर से प्रवेश नहीं मिला। अन्य दूसरे विद्यालयों में भी अनुशासन हीनता की रिपोर्ट के कारणों से नहीं उसे लिया गया। परिणाम यह हुआ कि अब संजय को घर ही बैठना पड़ा। संजय के पिता और बूढ़े हो चले थे। नौकरी से भी वह पद निमृत तो हो ही गए थे। संजय की चिंता उन्हें हर समय दुखी करती।
विद्यालय से यू अपमानित होकर निकालने जाने तथा गलत रास्ते पर चलने की प्रेरणा देने वाले साथियों का साथ भी छूट गया। अब संजय कुछ गंभीर हो गया। पड़ोसियों और रिश्तेदारों की शंका भरी निगाहें अब सहते सहते वह अपनी गलतियां समझने लगा था। संजय के पिता बीमार रहने लगे।
एक दिन उन्होंने संजय को अपने पास बुलाया और कहा देखो संजय आज तक तुमने मेरी बातें अधिकतर यूं ही अनसुनी कर डाली है और उसका फल भुगत ही रहे हो। अब मैं अंतिम बार तुमसे कुछ कहने का प्रयास कर रहा हूं। यू बेकार घर बैठे या घूमने से क्या लाभ होगा? यदि तुम चाहते हो तो मैं तुम्हें छोटी सी दुकान खुलवा दूंगा। मैं तो अब बूढ़ा हो गया हूं। कभी भी भगवान के घर से बुलावा आ सकता है। नौकरी के समय जो थोड़ा बहुत पैसा
बचाया है उससे शिवानी की शादी भी करवानी है। हमारे पास ना अपना मकान है ना ही कोई संपत्ति। मैंने तुम बच्चों के लिए ही सारा पैसा खर्च कर दिया। ना जाने कितने अरमान से तुम्हें पाला था।
कहते कहते संजय के बूढ़े पिता की आंखों से आंसू बहने लगे। पर शीघ्र ही उन्होंने अपने आप पर नियंत्रण कर लिया और फिर से गंभीरतापूर्वक कहने लगे। तुम अच्छे प्रकार से सोच समझ के दो-चार दिन में अपना निर्णय मुझे बता देना। कहीं ऐसा ना हो कि मेरे जाने के बाद तुम दाने-दाने के मोहताज हो जाओ! यह कहकर संजय के पिता ने करवट बदल ली।
संजय की आंखों के आगे अपने भविष्य का चित्र नाच उठा। उसे पिताजी की बातों में आज पहली बार सच्चाई दिखी। उसने दूसरे दिन पिताजी से कह दिया कि वह दुकान खोलने के लिए तैयार है। संजय के पिता ने थोड़ी पूंजी लगाकर उसके लिए छोटी सी दुकान खुलवा दी। साथ ही यह भी कह दिया कि उनके पास जो भी धन था वह उन्होंने लगा दिया है। संजय को लाभ हानि सहने के लिए स्वयं तैयार रहना होगा। अब संजय सारे दिन अपनी छोटी सी दुकान पर बैठा रहता। उसकी समझ में यह बात भी आ गई थी कि धन कमाना कितना कठिन है। पढ़ने के समय पिता का धन बिगाड़ने का उसे अब अधिक दुख हुआ था।
शिवानी सदैव अच्छे अंको से उत्तीर्ण होती गई। वह बैंक की प्रतियोगिता परीक्षा में बैठी और वहां भी उत्तीर्ण हो गई। साथ ही साथ बूढ़े माता-पिता का हाथ बटाने लगी। घर के खर्चे की कुछ जिम्मेदारी उसने अपने ऊपर ली और उसने अपने माता-पिता की चिंता भी दूर कर दी। अब माता पिता, पड़ोसी, रिश्तेदार सभी शिवानी की प्रशंसा करते थकते नहीं थे।
शिवानी ने बैंक अधिकारी के रूप में कुशलता से अपना काम करते हुए अधिकारियों और सहकर्मियों मैं इसमें ही सम्मान पूर्वक अपना स्थान बना लिया था। एक बार शिवानी के यहां कार्य की परीक्षण के लिए क्षेत्र अधिकारी आए। वो शिवानी का शील स्वभाव, कार्यकुशलता, तथा व्यवहार पर मुग्ध हो उठे। उन्होंने शिवानी के घर का पता पूछा और दूसरे दिन उसके पिता के पास जाकर अपनी इंजीनियर पुत्र के लिए उसे वधू बनाने के लिए इच्छा व्यक्त की। उनकी बातें सुनकर शिवानी के पिता प्रस्सन्नता से गदगद हो उठे। उनकी आंखों से आंसू बहने लगे और मुंह से अनायास ही निकल पड़ा, बेटी तो खरा सिक्का निकली और बेटा खोटा सिक्का!
शिवानी के ससुराल वालों की इच्छा अनुसार जल्द ही सादगी पूर्व समारोह में उनका विवाह हो गया। अब घर की जिम्मेदारी पूरी तरीके से संजय पर आ गई थी। पिता की पेंशन घर का खर्च चलाने के लिए पर्याप्त न थी। संजय भी अब गंभीर हो गया था। वह स्थिति को समझने लगा था। वह सारे दिन परिश्रम करता तब कहीं जाकर कुछ आए होती। संजय यही सोचता कि यदि वह माता-पिता का कहना मान कर मन लगाकर पढ़ाई करता तो आज वह शिवानी के भाती अच्छी नौकरी पर होता। स्वयं सुखी संतुष्ट रहता और सभी से आदर पाता। पर अब पछताने से होता भी क्या? उसने जीवन का सबसे अमूल्य समय विद्यार्थी काल व्यर्थ ही गंवा दिया था। अब तो वह परिस्थिति के अनुसार जीवन चलाने के लिए विवश था। उसे बार-बार रामचरित्र मानस की यही पंक्ति याद आती,
का वर्षा जब कृषि सुखाने।
समय चुकी पुनि का पछताना।
सच है बचपन से किशोरावस्था तक का समय ही भविष्य को उज्जवल बनाने वाले गुण और शिक्षा प्राप्त करने का समय है। इसे यूं ही निकम्मेपने गवा देने पर जीवन भर कष्ट को सहना और असंतुष्ट जीवन बिता ते हुए पछताना ही शेष रह जाता है। अच्छे बच्चे पूरी तन्मयता से आगे पढ़ते हैं ,बढ़ते हैं। और ऊंचा उठने के प्रयास में जुटे रहते हैं।
तो इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें विद्यार्थी काल जो बहुत ध्यान पूर्वक बिताना चाहिए इधर-उधर बातों में गलत कामों में नहीं व्यर्थ करना चाहिए अन्यथा हमें इस काल के बीत जाने के बाद बहुत पछताना पड़ता है। यह समय दोबारा लौटकर नहीं आता है और यह समय जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है क्योंकि इसी समय हमारा भविष्य निर्माण का काल होता है।
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